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  • Authored Dar DarGange (A semi-fiction based on life-stories of farmers of the Ganga Basin region published by Penguin Books)
  • Authored Mati Manoos Choon (A novel based water crises specially on ganga basin)
Blog Published On : 29 May 2020 | theprint
  • 29 May 2020
  • Abhay Mishra

हज़ारों सालों से अमृत बरसाने वाली गंगा नदी आज जहर क्यों परोस रही है

जब देशभर में लॉकडाउन चल रहा है और सिर्फ जरूरी सेवाएं ही काम कर रही हैं तब केंद्रीय प्रदूषण कंट्रोल बोर्ड यानी सीपीसीबी ने एक रिपोर्ट जारी कर कहा कि 36 निगरानी पाइंट में से 27 जगह गंगा का पानी नहाने योग्य हो गया है.

जापान के एक वैज्ञानिक हैं. नाम है डॉ. मसारू ईमोटो. उन्होने रामायण में उल्लेखित श्राप की इन घटनाओं को सिर्फ मनोरंजन या अंधविश्वास के तौर पर नहीं लिया बल्कि इसे अपने शोध का विषय ही बना लिया. डॉ. ईमोटो के शोध का विषय है- ‘पानी के सोचने समझने की क्षमता’.

वे पानी की उस क्षमता को जानना चाहते थे जिसे ऋषि मुनि हथेली में लेकर संकल्प लेते थे या श्राप दे दिया करते थे. उन्होने विभिन्न स्थानों के पानी को मंत्रों के बीच रखकर या राजनीतिक भाषणों के बीच रखकर -25 डिग्री पर जमाया. इतने माइनस में जाकर पानी रवा विन्यास (क्रिस्टल) में परिवर्तित हो जाता है. इस परियोजना से जुड़े सभी वैज्ञानिक उस समय आश्चर्य में पड़ गए जब मंत्रों के बीच रखे पानी के क्रिस्टल पुष्प की तरह खूबसूरत आकार लिए हुए थे. इससे भी बढ़कर जब यह प्रयोग गंगाजल पर किया गया तो उसके क्रिस्टल कमलाकार थे. शायद इसीलिए शास्त्र और लोक परम्परा ने गंगाजल को संकल्प और साक्षी का दर्जा दिया. हालांकि वैज्ञानिकों का एक बड़ा वर्ग इस तरह के प्रयोगों को विज्ञान का दर्जा नहीं देता. लेकिन भारतीय सत्ता इसे सकारात्मक तरीके से देखती रही है.

डॉ ईमोटो की मौत के बाद भी ये प्रयोग जारी हैं. भले ही इसके विज्ञान की कसौटी पर खरा उतरने की संभावनाएं क्षीण हैं फिर भी इतना तो माना ही जा सकता है कि अगर कहानी सुनने वाला न हो तो भरे घड़े के सामने बैठकर कहानी सुनाने की लोकपरंपरा अविचारित नहीं है.

थोड़ा और पीछे चलते हैं- दो लाइन की सीधी सी पर्यावरणीय कहानी है जिसके मायने सदियों बाद भी हम समझ नहीं पाए. भगीरथ ने तप किया, जब गंगा धरती पर आने को राजी हो गई तो भगवान शिव से निवेदन किया गया कि वे गंगा की तीव्र धारा को संभाल लें अन्यथा धरती पर आफत आ जाएगी. शिव तैयार हो गए और उन्होने गंगा को अपनी जटाओं में थाम लिया, फिर धीरे-धीरे उन्हे तयशुदा रास्ते पर बहने दिया.

अब इसे यूं समझिए– ऋषिकेश में परमार्थ आश्रम के सामने गंगा के बीचों बीच एक शिव की विशाल प्रतिमा विराजित है. हमारी समस्या यह है कि हम उस या उस जैसी किसी मूर्ति को ही शिव समझते है. यह मुर्ति 2013 के केदारनाथ हादसे में बह गई थी. मतलब साफ है वह मूर्ति रूपी शिव, गंगा के शिव नहीं थे. गंगा, कंक्रीट और पत्थर के बनाए किसी भी मूर्ति और मंदिर को नहीं पहचानती और उन्हें बहा ले जाती है. बहरहाल तमाम नियमों को धता बताते हुए परमार्थ आश्रम ने मूर्ति फिर स्थापित कर दी.

वास्तव में गंगा अवतरण की कहानी में हिमालय ही शिव है और हिमालय में पाई जाने वाली विभिन्न किस्मों की घास, जो जितना ऊपर होती है उससे दूगनी जमीन के नीचे होती हैं, शिव की जटाएं हैं. हमने शिव की जटाओं को काट दिया. नतीजा, भूमि कटाव और बाढ़ में बढ़ोत्तरी. फिर हम शिकायत करते हैं कि गंगा ने तबाही मचा दी. यानी धरती पर आफत आ गई.

गंगा एक वरदान बनकर ही तो धरती पर आई थी. एक नदी जिसका पानी अमृत हुआ करता था और जिसके बैक्टेरियोफास पर हुए शोधों में यह निष्कर्ष निकला कि गंगा के पानी में बिमारियां फैलाने वाले जीवाणु ठहर नहीं सकते. लेकिन पिछले कुछ सालों में सरकारी नीतियों और सामाजिक उपेक्षा से तस्वीर उलट गई. यानी जो हजारों सालों में नहीं हुआ वह मात्र चालीस–पचास साल में हो गया.

अमृत देने वाली नदी सुपरबग पैदा कर रही है. सुपरबग उस जीवाणु को कहते हैं जिस पर एंटीबायोटिक्स का कोई असर नहीं होता. बीमारी फैलाने वाले ऐसे बैक्टेरिया ऋषिकेश और हरिद्वार की गंगा में पाए गए हैं. फाइनेंसियल टाइम्स एशिया न्यूज के संपादक विक्टर मेलेट ने गंगा यात्रा की और अपनी किताब– रिवर ऑफ लाइफ, रिवर ऑफ डेथ में कई शोधों के हवाले से बताया कि यूरोप के कई देश गंगा में पाए जाने वाले सुपरबग से प्रभावित हैं. (किताब पृष्ठ 96 से 113) इसे नाम दिया गया– ‘नई दिल्ली सुपरबग’ हालांकि मेडिकल रिसर्च की सबसे बड़ी भारतीय संस्था इंडियन काऊंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च ने इस दावे को नकार दिया और इसे एंटीबायोटिक्स बनाने वाली कंपनियों की साजिश करार दिया.

लेकिन हाल ही लखनऊ के भारतीय विषविज्ञान अनुसंधान संस्थान यानी आईआईटीआर ने भी अपने शोध में कुछ ऐसा ही पाया. वहां के वैज्ञानिकों ने कानपुर के बिठुर से शुक्लागंज के बीच गंगाजल पर किए अपने प्रयोगों में पाया कि गंगा में डायरिया, खूनी पेचिश और टायफायड पैदा करने वाले बैक्टेरिया तेजी से पैदा हो रहे हैं. और इन सभी बीमारियों पर अब वो एंटीबायोटिक्स काम नहीं करते जो दस साल पहले आसानी से मरीज को ठीक कर देते थे. यह समस्या पूरे गंगापथ को अपने में समेटते हुए बांग्लादेश तक जा रही है.

गंगा में मरकरी, सीसा, क्रोमियम और निकल की मात्रा बेहद ज्यादा हो गई है. यह त्वचा संबंधी समस्याएं पैदा कर रहे हैं और गाल ब्लैडर, ग्रास नली और यकृत कैंसर के कारण बन रहे हैं. गंगा में प्रदूषण बढ़ने से जलीय पारिस्थितकीय तंत्र बूरी तरह प्रभावित हुआ है. जिसका सीधा असर मछली उत्पादन में देखने को मिल रहा है. बंगाली समाज का मुख्य भोजन मछली माना जाता है लेकिन उन्हें यह जानकर आश्चर्य होगा कि बंगाल के लिए मछली की सप्लाई आंध्र प्रदेश करता है.

कोरोना काल ने सरकार को इन शोधों पर बहस से बचने का मौका दे दिया. इसलिए अपनी नाकामियां छुपाने के लिए उन आधी अधूरी रिपोर्टों को जारी किया जा रहा है जिससे जनमानस को बरगलाया जा सकें. बानगी देखिए– जब देशभर में लॉकडाउन चल रहा है और सिर्फ जरूरी सेवाएं ही काम कर रही हैं तब केंद्रीय प्रदूषण कंट्रोल बोर्ड यानी सीपीसीबी ने एक रिपोर्ट जारी कर कहा कि 36 निगरानी पाइंट में से 27 जगह गंगा का पानी नहाने योग्य हो गया है.

क्या सरकार के अंदर यह इच्छाशक्ति है कि वह लोगों से कह सके कि यह स्थिति बहाल रहेगी और औद्योगिक कचरा फैलाने वाली फैक्ट्रियों का लॉकडाउन जारी रहेगा. लेकिन सब जानते है कि लॉकडाउन खत्म होते ही इन फैक्ट्रियों में चौगुनी तेजी से काम शुरू होगा और गंगा फिर तेजी से प्रदूषित होगी.

क्या लॉकडाउन एक शानदार मौका नहीं है कि हाइड्रो पॉवर कंपनियों से कहा जाए कि वो अतिरिक्त पानी छोड़े क्योंकि इस समय देश में बिजली की खपत 25 फीसद नीचे आ गई है. यह पानी गंगा को पुर्नजीवन दे सकता है. अन्यथा वो बीमारी पैदा कर रही है. गंगा पथ पर लगातार होता भूजल दोहन आर्सेनिक पैदा कर रहा है और भविष्य के बड़े संकट की ओर इशारा कर रहा

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